दुनिया एक संसार है, और जब तक दुख है तब तक तकलीफ़ है।

Saturday, July 7, 2007

इब्नबतूता का इंडिया ट्रैवेल शो - दो

कोल(अलीगढ) आने पर खबर मिली कि शहर से सात मील की दूरी पर जलाली नाम के क़स्बे के हिंदुओं ने बग़ावत कर दी है. वहां के लोग हिंदुओं का सामना तो कर रहे थे लेकिन अब उनकी जान पर आ बनी थी. हिंदुओं को हमारे आने की ख़बर न थी. हमने हमला कर के सभी हिंदुओं को मार डाला, यानी तीन हज़ार सवार और एक हज़ार पैदल को मार कर उनके घर और हथियार वग़ैरह सब क़ब्ज़े में ले लिये...इस वाक़ये की ख़बर सुल्तान को देकर हम जवाब के इंतज़ार में इसी शहर में ठहर गये.
पहाडों से निकलकर हिंदू रोज़ जलाली क़स्बे पर हमला किया करते थे और हमारी तरफ से भी 'अमीर' हम सब को साथ लेकर उनका सामना करने जाया करता था.
एक दिन मैं सबके साथ घोडों पर सवार होकर बाहर गया. गर्मियों का महीना, हम एक बाग़ में घुसे ही थे कि शोर सुनाई दिया और हम गांव की तरफ़ मुड पडे. इतने में कुछ हिंदू हमारे ऊपर आ टूटे. लेकिन जब हमने सामना किया तो उनके पांव न टिके. ये देख हमारे साथियों ने अलग-अलग दिशाओं में उनका पीछा करना शुरू किया. मेरे साथ उस वक़्त सिर्फ़ पांच आदमी थे. मैं भी भगेडुओं का पीछा कर रहा था कि अचानक एक झाडी में से निकल कर कुछ सवार और पदातियों ने मुझ पर हमला किया. गिनती में कम होने की वजह से हमने अब भागना शुरू कर दिया, दस आदमी हमारा पीछा कर रहे थे. हम बस तीन थे, ज़मीन पथरीली थी और राह दिखाई न देती थी.मेरे घोडे की अगली टांगें तक पत्थरों में अटक गईं. लाचार होकर मै नीचे उतरा, उसके पैर निकाले और फिर सवार होकर चला.
इस मुल्क में दो तलवारें रखने का रिवाज है. एक जीन में लटकाई जाती है जिसको 'रकाबी' कहते हैं और दूसरी कमर में लटकाई जाती है.
मैं कुछ ही आगे बढा था कि मेरी रकाबी म्यान से निकल कर गिर पडी. उसकी मूठ सोने की थी इसलिये मैं फिर नीचे उतरा और उसे ज़मीन से उठाकर जीन में रखा और चल पडा.दुश्मन मेरा पीछा अब भी कर रहे थे.मैं एक गड्ढा देख उसी में उतर गया और उनकी नज़रों से ओझल हो गया.
गड्ढे के बीच से एक राह जाती थी. यह न जानते हुए भी वो कहां को जाती है, मैं उसी पर हो लिया. लेकिन अभी कुछ ही दूर गया होऊंगा कि अचानक चालीस आदमियों ने मुझे घेर लिया, उनके हाथों में तीर-धनुष थे. मेरे बदन पर कवच नहीं था इसलिये मैं भागा नहीं वरना तीरों से मुझे छलनी कर दिया जाता. मैं ज़मीन पर लेट गया, ताकि वो जान जायें कि मैं उनका क़ैदी हूं. ऐसा करनेवाले को ये कभी नहीं मारते हैं. लबादा, पैजामा और क़मीज़ के अलावा ये मेरे सारे कपडे उतार कर मुझे एक झाडी के भीतर ले गये. इसी जगह पेडों से घिरे एक तालाब के किनारे ये ठहरे हुए थे.
यहां पहुंचकर इन्होंने मुझे उरद की रोटी दी. खाने के बाद मैने पानी पिया.
उनके साथ दो मुसलमान भी थे जिन्होने फ़ारसी ज़बान में मेरा तार्रुफ़ पूछा. मैंने अपने बारे में सब कुछ बता दिय लेकिन ये न बताया कि मैं सुल्तान का ख़ादिम हूं.
(आगे है अभी कि किस तरह इब्नबतूता को मौत की सज़ा सुनाई गयी.)

3 comments:

चंद्रभूषण said...

अब पता चला कि इब्न बतूता का जूता चलते-चलते नहीं, मार-झगड़े के दौरान निकलकर जापान चला गया था...गलत बात है, घुमक्कड़ को सुल्तानों की मुसाहिबी नहीं करनी चाहिए...

Sanjeet Tripathi said...

रोचक!!
प्रतीक्षा रहेगी!!
आभार!!

अभय तिवारी said...

भला काम कर रहे हो इसे यहाँ छाप के..