दुनिया एक संसार है, और जब तक दुख है तब तक तकलीफ़ है।

Tuesday, August 21, 2007

हटिये,अब हमें नहाने दीजिये

आप अगर इब्बार रब्बी को नहीं जानते तो इसमें आपका कुसूर नहीं है. एक राष्ट्रीय दैनिक से सेवानिवृत्त हुए इब्बार रब्बी कभी आलोचक को खुश रखकर कीर्ति का फल चखने (साभार नगार्जुन) के चक्कर में नहीं रहे हैं. समय और समाज की विद्रूपताओं पर उनकी पैनी नज़र रहती है और जीवन का उत्सव उनसे कभी बचकर नहीं निकलता. हमने जब कविताओं से अपने जीवन में रंग भरने शुरू किये तो उनकी कविताओं ने छूट गये रंगों की कमी पूरी की. बहुत साधारण लगनेवाली स्थितियों और चीज़ों पर लिखी उनकी असाधारण कविताएं हमें अपने काव्य संसार का सम्मान करना सिखाती हैं और एक लंबी लड़ाई के लिये हममे एक अनिवार्य stability की ज़रूरत पैदा करती है.
आइये सुनिये इब्बार रब्बी की दो कविताएं- उनकी ही आवाज़ में




आलू









मेज़ का गीत









ये कविताएं मैंने 2003 में इब्बार रब्बी के घर पर रिकॊर्ड कीं.

2 comments:

अजित वडनेरकर said...

बहुत खूब इरफान भाई। एक यूनिक किस्म का ब्लाग है आपका और काम है सलाम का।
तो लीजिए सलाम हाजिर है अजित का .....

इरफ़ान said...

अजित भाई आभार.
सलाम स्वीकार किया गया. आते रहिये.