दुनिया एक संसार है, और जब तक दुख है तब तक तकलीफ़ है।

Wednesday, February 20, 2008

पतनशीलता: कुछ आत्मस्वीकार और थोडी कशमकश वाया ज़िया मोहेउद्दीन और मोहम्मद अली रुदौलवी


पतनशीलता एक सतत द्वंद्व है. आइये सुनें कि इस कश-म-कश से गुज़रता एक शख़्स किन-किन चीज़ों को याद कर रहा है और अपने मन को समझाता कुछ समझने की कोशिश कर रहा है.


ज़िया मोहेउद्दीन
..........अवधि-08:04

12 comments:

काकेश said...

बेहतरीन.

अभय तिवारी said...

मस्त!

अजित वडनेरकर said...

क्या खूब ! क्या खूब !! बेहतरीन था अर्ज़ें बयाँ।

इरफ़ान said...

काकेश और अभय आप हमारे सच्चे हिमायती साबित हुए. बधाई.अजितजी शुक्रिया, शायद आप तर्ज़े बयाँ लिखना चाह रहे थे, उँगली फिसल गई.

पारुल "पुखराज" said...

shukriyaa sunvaaney ka....is post ke sahaarey Zia Mohyeddin ke duusrey links tak pahuunchi ,jahan samaa kuch aur hi hai....

दिनेशराय द्विवेदी said...

क्या बात है। बहुत दिनों के बाद रवानी वाली उर्दू सुनी। अंदाज इतना बेहतरीन कि हम हिन्दी वाले भी कहीं समझने में न चू्के। इतना बता देते कि यह किस मजलिस में किस मौके पर की गई तकरीर थी? और तकरीर करने वाले मोहतरम का कुछ परिचय भी होता तो हमारे ज्ञान में वृद्धि हो जाती।
फिर भी इतनी जानदार तकरीर सुनाने के लिए आप का बहुत शुक्रिया।

इरफ़ान said...

पारुल जी आ आभार.

दिनेशजी आप ने ध्यान नहीं दिया शायद प्लेयर के नीचे नाम, और परिचय आदि के लिये लिंक दिया है मैंने. यह एक साहित्य समागम है जो पाकिस्तान नेशनल सेंटर फॉर कल्चर एंड आर्ट्स के तत्वावधान में नियमित अंतराल पर इस्लामाबाद में होता है. कहा जाता है कि इस सेंटर का वही स्थान है जो साहित्य अकादमी का. ज़िया मोहेउद्दीन भारतीय उपमहाद्वीप के कुशलतम साहित्य वाचकों में शीर्ष स्थान रखते हैं.

इरफ़ान said...
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अजित वडनेरकर said...

इरफान जी, अभी अभी दफ्तर से लौटा हूं और देखा कि आपने ग़लती पकड़ ली है। दरअसल जल्दबाजी में ही लिख गया । जब पढ़ रहा था तो दिमाग़ में ये पंक्तियां कहीं डेरा डाल चुकी थीं-

गर यही , तर्ज़े फुगाँ है अंदलीब
तू भी गुलशन से निकाली जाएगी...

बस , यहीं ग़लती हो गई।

इरफ़ान said...

कोई बात नहीं अजित जी. मैंने कहा न कि ये हो जाता है. जैसे देखिये फिर हुआ. आपने लिखा है"जब पढ़ रहा था तो दिमाग़ में ये पंक्तियां कहीं डेरा डाल चुकी थीं-

गर यही , तर्ज़े फुगाँ है अंदलीब
तू भी गुलशन से निकाली जाएगी...है"


इस हिसाब से तो आप तर्ज़े फ़ुग़ाँ का ही एक शब्द अपने सफ़र में साथ लाना चाहते थे लेकिन अंदाज़े के साथ वो फ़्यूज़ हो गया . मेरे साथ ये बहुत होता है.

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

इरफ़ान भाई, कमाल से ऊपर की कोई चीज़ होती हो तो मेरी तरफ़ से कह दीजिये. दिल से न कहा हो तो रकीब माँ-बाप की औलाद नहीं!

aur ye kya baat huee ki paarul ke baat kaa javaab diyaa! ajit ko minus karke kah raha hoon.

Anonymous said...

mujhe ye blog bahut achchha laga. lekin main urdu inta nahi janata jitana hindi, parantu urdu main padhana sunana bahut achchha lagata hai.

yogesh purohit
yog_purohit@yahoo.co.in