दुनिया एक संसार है, और जब तक दुख है तब तक तकलीफ़ है।

Thursday, July 29, 2010

वतन से दूर वतन की यादें ...




Suno M F Husain Ki Kahani
A JOURNEY IN SOUND


Icon and Iconoclast. Legend and Maverick. A man who (at age 94) is driven by a seemingly constant charge of inexhaustible energy. And a mind which is constantly at work reinventing itself, always seeking avenues to express itself in novel ways without ever being trapped by the glitter of ephemeral fame and fortune. Husain is a remarkable painter and more importantly an incredible human being. When such a man sets on a quest he achieves the seemingly impossible with remarkable ease.

An incurable romantic without being maudlin, Husain a few years back after living an eternity in excellence chose to write his memoirs. The text was written on myriad paper surfaces and then at some point put together by wellwishers. Vivid and visual in its essence the text has been regarded as a literary gem pushing the frontiers of Hindustani literature.

The autobiography chose to liberate itself from set norms and conventions of the form. Instead in his hand the pen served as a brush. And lines and the figures that emerged had the same superlative quality as his art. Broad, vivid and minimal. Conversational, nostalgic and humane. Hussain’s memoir is an exquisite tale of an indomitable spirit fighting heavy odds to triumph. Episodic and high on empathy, Irfan found the work eminently suitable for a radio interpretation.

Irfan, a radio professional and writer himself, understood the basic kernel of Husain’s way of story telling. That of the ancient Indian tradition of Qissagoi. The media whose presiding deity for time eternity have been the grandmothers within a family and its recipients dozens of eager ears tuned to numerous twists and turns of a multilayered tale.

He also saw a unique oportunity to present to his world a form, a work hitherto unknown to the Hindustani speaking populous of India. The Audio Book. Intimately known to the Bengali and Malayalam listeners, the form is a powerful, intimate and energetic medium to tell a story. A form which supplements and complements the written word. A medium which is not bound by a particular script and can address people who can understand a language if not read it.

Here is a sample:




Contact: ramrotiaaloo@gmail.com

Saturday, July 17, 2010

फोन खो गया है

फोन खोने से आप सभी के नंबर भी खो गए हैं. इतनी मेहरबानी कीजिये कि अगर आपके पास मेरा नंबर हो तो उस पर अपना नंबर (अपने नाम के साथ) मुझे एस एम एस कर दीजिये. ई मेल करने के लिए ramrotiaaloo@gmail.com इस्तेमाल कीजियेगा.

Thursday, July 1, 2010

मुनीश जब बोलते हैं तो फूल झड़ते हैं !


आकाशवाणी के सूने गलियारों में मुनीश से हुई मुलाक़ात अब आदत बन चुकी है । यह शख्स उन थोड़े से लोगों में है जिन से दो घड़ी बातें की जा सकती हैं ...आप भी सुनिए और यकीन कीजिये कि मुनीश जब बोलते हैं तो फूल झड़ते हैं।

Tuesday, June 29, 2010

पलकों के पीछे से क्या तुमने कह डाला .... "वेरी प्रोजेक"

एस डी बर्मन दादा ने मजरूह चा के "गाने" को क्या कमाल का बना दिया ... सुनिए
फिल्म: तलाश (1969)
रफ़ी - लता




palakon ke peechhe se kyaa tum ne kah daalaa, fir se to faramaanaa
nainon ne sapanon kee mahafil sajaayee hain, tum bhee jarur aanaa

tobaa meree tobaa, mushkil thaa yek to pahale hee dil kaa bahalanaa
aafat fir us pee lat mein tumhaaraa mukhadaa chhipaa ke chalanaa
ayese naa bolo, pad jaaye muz ko sharamaanaa

duniyaan naa dekhe dhadake meraa man rastaa sajan meraa chhodo
tan tharatharaye ungalee humaaree dekho piyaa naa marodo
yoon naa sataao, muz ko banaa ke diwaanaa

bach bach ke hum se, o matawaalee hain ye kahaa kaa iraadaa
naajook labon se fir karatee jaao, milane kaa koee waadaa
dil ye meraa ghar hain tumhaaraa, aa jaanaa

Friday, June 25, 2010

राजेश जोशी अब दिल्ली में ही बीबीसी के ऑफिस में हैं !


राजेश जोशी ने परसों मेरा शो सुनते हुए मेसेज बोर्ड पर तारीफ़ के दो शब्द लिखे तो पता चला कि वो दिल्ली में हैं। दिल्ली की उनकी पुरानी यादों को समर्पित पेश है ये गीत।


दस फुट बाई दस फुट


suman chattopadhyaya

Friday, June 18, 2010

आज मेरी शादी की सालगिरह है ...बधाइयां स्वीकार की जायेंगी!

Dear Visitor,
I am curious why are you visiting this 5 years old post of mine today. You may write me back on my email ID ramrotiaaloo@gmail.com directly and help me to understand how you reached this link and what was expected.
Best,

Wednesday, June 2, 2010

ब्लैक एंड व्हाईट की बात ही कुछ और है !

ये मेरे तीनों बच्चों की ब्लैक एंड व्हाईट फोटो हैं जों मैंने पिछले हफ्ते खींचीं हैं .


अबान उर्फ़ गागू



फराह



सारा

Thursday, May 20, 2010

उम्मीद है कि रवीश कुमार अब भी एफ़ एम गोल्ड नहीं सुन पा रहे होंगे !


रवीश कुमार ने अपना रेडियो बचाओ के अभियान पर सहमति जताते हुए फेसबुक पर कहा कि जब तक एफ़ एम गोल्ड पर काम करनेवालों को पैसे नहीं मिल जाते तब तक वो एफ़ एम गोल्ड सुनना बंद कर रहे हैं. प्रबुद्ध श्रोताओं ने हालांकि उनसे यह पूछ ही लिया कि अगर आप सहमत हैं तो एन डी टी वी पर स्टोरी क्यों नहीं करते? बहरहाल स्टोरी तो वो समय आने पर करेंगे ही फिलहाल प्रेस में आजकल आकाशवाणी की चर्चा है। देश में जनता के टैक्स के पैसे से चलनेवाला यह संगठन सही राह पर चले ... यह चिंता तो सबकी होनी चाहिए।

Thursday, May 6, 2010

गाते गाते रोएं क्यूं ...चिल्लाने क्यूं न लगें !

जब बात निकली तो शुरू में कई लोग बड़े चिंतित दिखे लेकिन अब धीरे-धीरे ज़्यादातर लोग यही साबित कर रहे हैं कि भाई हमें मत घसीटो क्योंकि हमको आल इंडिया रेडियो से अक्सर चेक लेने जाना होता है. जोर से बोलने में आज कल गले पर जोर पड़ता है.इसलिए फुसफुसाओ, बल्कि नाकियाओ.

इकबाल बानो ने फैज़ की जिस रचना को अमर बनाया है, सुनिए नजम शिराज़ ने कम कमाल नहीं दिखाया...




यहाँ
यहाँ और यहाँ भी देखें

Saturday, April 3, 2010

मेरी आवाज़ ही पर्दा है मेरे चहरे का

मेरी आवाज़ ही पर्दा है मेरे चहरे का,
मैं हूँ खामोश जहां मुझको वहां से सुनिए




Duration: 23Sec

Thursday, March 25, 2010

एक ताज़ा फ़ोटो


रात भारी सही कटेगी ज़रूर,
दिन कड़ा था मगर गुज़र के रहा
-अहमद नदीम क़ासमी

Monday, March 22, 2010

जाने कहां गये वो गीत!

मोहल्ला से एक पुरानी पोस्ट का पुनर्प्रकाशन



इरफान भाई दोस् हैं। उनकी शख्सीयत का एक पहलू नहीं है। वो आंदोलनी रोज़मर्रे से शुरू होकर आज हर उस फ़न के माहिर हैं, जो सामने वाले को चमत्कार लग सकता है। अच्छी पेंटिंग, अच्छे विचार, अच्छी आवाज़ और उम्दा ज़बान- सब कुछ है उनके पास। रेडियो रेड नाम के एक प्रोडक्शन हाउस की नींव उन्होंने रखी और एक समानांतर प्रसारण की मुहिम में आज दिन-रात लगे रहते हैं। काम के दरम्यान ही उन्होंने पुराने हिंदी फिल्मी गानों के ख़ज़ाने से कुछ फुटकर नोट्स लिये। यह काम उन्होंने एक स्मारिका के लिए किया, जो इस साल गोरखपुर में होने वाले फिल् महोत्सव में छपना था। दंगों ने इस महोत्सव की तय तारीख़ को जला कर राख़ कर दिया। अब जब कभी ये महोत्सव गोरखपुर में होगा, तब स्मारिका छपेगी और तब ये आलेख भी छपेगा। लेकिन हमारे आग्रह पर इरफान भाई और संजय जोशी ने ये नोट्स मोहल्ले पर जारी करने के लिए उपलब् करा दिया। फिलहाल तो हम उन्हें शुक्रिया ही कह सकते हैं।
-मोहल्ला सम्पादक की टिप्पणी

पुराने फिल्मी गाने: महज़ मनोरंजन या रोशनी का ज़रिया‍

कहते हैं कि फिल्मी गाने आधुनिक जीवन का लोक संगीत हैं। बीसवीं सदी की एक अद्भुत ईजाद यानी फिल्मों ने हमें फिल्मी गाने दिये हैं। इनका वुजूद बदलते हुए समाज के साथ ही रूप लेता रहा है और अब भी ले रहा है। कह सकते हैं कि जो काम लोकगीत-मुहावरे और लोकोक्तियां किया करती थीं, वही काम ये गाने पिछले सत्तर सालों से कर रहे हैं। किसी भी समाज में सत्तर साल कोई बड़ा अरसा नहीं होते। फिर हमारे जैसे प्राचीन समाज में इतने थोड़े से वर्षों की गिनती ही क्या है? लेकिन कभी बैठ कर सोचिए कि कैसा जादू है इन फिल्मी गानों में, तो सचमुच हैरत होती है। मधुर संगीत और फिल्म में प्लेसिंग के बाद तो इनके जादू का असर दिखता ही है- इसके बगैर भी इनका स्वतंत्र व्यक्तित्व नकारा नहीं जा सकता। खासतौर पर जिन्हें हम ‘पुराने गाने’ कहते हैं, वो पुराने होकर भी पुराने नहीं पड़ते। इन गानों में जो शायरी है, वह अपने समाज के हर दुख-दर्द, शिकायत और प्रतिरोध को स्वर देती है। यह शायरी सताने वालों का पक्ष नहीं लेती, इसमें सताये हुए लोगों की भरपूर तरफदारी है। इसमें शोख निडर, बेबाक मोब्बत का इजहार है, असहाय और बेसहारा लोगों की तकलीफों और उमंगें हैं, मेहनतकश लोगों के ख्‍वाब और उम्मीदें हैं। बच्चों की लोरिया हैं, जमाने से टकराने और कुरीतियों को चुनौती देने की बाते हैं, सकारात्मक मूल्यों की पक्षधरता है, परम्परा और यथास्थिति की ग़ुलामी का प्रतिकार है, प्रकृति और मनुष्य के संबंधों का बेलगाम वर्णन है, सेल्फरेस्पेक्ट और व्यक्तिपरकता की गूंज है। ये शायरी इंसान में जीने के हौसले को तो दो कदम आगे बढ़ाती ही है, इंसान से इंसान के रिश्ते और भरोसे को मज़बूत करती है। रोमांटिक से लेकर यथार्थपरक गीतों की इंद्रधनुषी छटा को देखते हुए विष्णु खरे के शब्दों में हम कहेंगे कि ऐसा कोई विषय, ऐसा कोई भाव, ऐसी कोई जीवन स्थिति नहीं है, जिस पर गाने न लिखे गये हों। और यह भी कि अगर इस दौर के समूचे भारतीय समाज को सिरे से नष्ट कर दिया जाए, तो भी इन गीतों के माध्यम से उस काल को पुनःनिर्मित (reconstruct) किया जा सकता है कि वह कैसा समाज था, लोगों के सुख-दुख, सपने, संस्कृति, परम्परा और सामाजिक-आर्थिक रिश्ते कैसे थे।

आज फिल्मी गीतों में मौजूद कविता या कहें शायरी की पड़ताल करते हुए जज़्बाती तौर पर मेरे सामने कई मंज़र उभरते हैं, कई बातें ताज़ा हो जाती हैं। मेरे घर में जो रेडियो था, उस पर सुबह से ही रेडियो सीलोन और विविध भारती पर गाने खनक उठते थे। मेरी दादी को पुराने गानों का शौक़ था और पिता भी कला-साहित्य-संगीत के कम प्रेमी नहीं थे। सुबह सवा सात से साढ़े सात बजे तक रेडियो सीलोन से ताज़ा रिलीज़ हुई फिल्मों के गाने बजते थे और साढ़े सात से आठ तक पुराने गाने बजते थे। इस कार्यक्रम का समापन नियम से सहगल के गाये किसी गीत से होता था। ‘चाह बरबाद करेगी हमें मालूम न था’, ‘दुनिया में हूं दुनिया का तलबगार नहीं हूं’, ‘एक बंगला बने न्यारा’ और ‘सो जा राजकुमारी सो जा’ जैसे गाने आज भी यादों में इस तरह ताज़ा हैं कि जैसे कल की बात हो। गाने वालों की आवाज़ और संगीत का जादू हमें mesmerized कर दिया करता था। इस सबके बीच एक और दिलचस्प बात ये होती थी कि शब्दों का एक लय संसार हमारे जीवन में प्रवेश कर जाया करता था। ज्यादातर प्रेम और विरह के गीत हमारी ज़ि‍न्‍दगी को उतना प्रभावित नहीं करते थे, जितना उन्हें प्रभावित करते होंगे, जिन्होंने प्रेम और विरह के मर्म को समझा होगा। हम बच्चे थे और ‘मार कटारी मर जाना रे अंखियां किसी से मिलाना ना’, या ‘आवाज़ दे कहां है- दुनिया मेरी जवां है’ की गहराई तक नहीं पहुंच सकते थे।

यादों का सिलसिला आगे बढ़ता है और उनमें एक दूसरे को काटते और एक दूसरे को अपदस्थ करने की कोशिश में लगे गाने जुड़ते हैं। ‘वहां कौन है तेरा मुसाफिर जाएगा कहां’, ‘गोरे रंग पे न इतना गुमान कर गोरा रंग दो दिन में ढल जाएगा’, ‘दिल को देखो- चेहरा ना देखो चेहरे ने लाखों को लूटा’, ‘दो जासूस करें महसूस कि दुनिया बड़ी खराब है’, ‘मेरा जीवन कोरा काग़ज़ कोरा ही रह गया’, ‘घुंघरू की तरह बजता ही रहा हूं मैं’, ‘न मुंह छुपा के जियो और न सर झुका के जियो, ग़मों को दौर भी आए तो मुस्कुरा के जियो’, ‘बाज़ार में गुज़रा हूं खरीदार नहीं हूं’, ‘कुछ लोग जो ज्यादा जानते हैं इंसान को कम पहचानते हैं’, ‘एक अकेला थक जाएगा मिलकर बोझ उठाना’, ‘ग़म और खुशी में फर्क न महसूस हो जहां- मैं दिल को उस मुकाम पे लाता चला गया’ और इस तरह की सैकड़ों लाइनें हमारी भाषा और साहित्य शिक्षण का हिस्सा बनती गयीं। ऐसा नहीं था कि हम इन पंक्तियों को सायास subscribe कर रहे थे क्योंकि हमारे लिए prescribed syllebus था और हमारे शिक्षक-अभिभावक आश्वस्त थे कि हम नीति और बोध की अच्छी-अच्छी बातें पढ़ कर सभ्य-सुसंस्कृत नागरिक बन रहे हैं। हालांकि सच्चाई ये थी कि हमें पढ़ायी-बतायी जाने वाली बातों में एक बासीपन था और एक किस्म की जड़ता, जो हमें पूरी तरह आश्वस्त नहीं कर पाती थी कि हम अपने समय की फ़रेबी हक़ीक़तों को कभी पकड़ पाएंगे। शायर इसी खालीपन और बेबसी में हर बार एक फिल्मी गाना हमारे कानों से होता दिल में उतरता था और हमें एक साथी मिल जाता था। ग़ौर कीजिए कि जब बात समझी-समझी सी लग रही हो लेकिन उसे कहने का ढंग न आ रहा हो तो चंद आसान, आम फ़हम, रोज़ इस्तेमाल में आने वाले लफ़्जों के बेहद सरल ताने-बाने में उसे कसकर पेश कर दिया जाए, तो आंखें कैसी खुशी से चमक उठती हैं? ‘चांदी की दीवार न तोड़ी प्यार भरा दिल तोड़ दिया’, ‘प्यार किया कोई चोरी नहीं की’, ‘हर दिल जो प्यार करेगा वो गाना गाएगा’ जैसे गानों ने हमें ये सलीक़ा सिखाया है कि हम ज़ि‍न्दगी को काले-सफेद रंगों में देखना बंद कर दें और उन रंगों को भी पहचानें जो इन दो रंगों के बीच हमेशा मौजूद रहते हैं।

इन फुटकर विचारों और स्मृतियों की खंगाल के पीछे मेरे उस पेशे का भी हाथ है, जिसे मैंने शौक़ और व्यावहारिक ज़रूरतें पूरी करने के लिए अपनाया है। आप शायद जानते हैं कि मैं दिल्ली में एफएम गोल्ड पर रेडियो प्रेज़ेंटेटर हूं, जिसे फैशन और सुविधा के लिए रेडियो जॉकी कहा जाता है। प्रोग्राम में आने वाले पत्रों और फोन कॉल्स से मुझे हर शो में ये एहसास होता है कि गाने सिर्फ मेरे लिए नहीं बल्कि करोड़ों श्रोताओं के लिए एक ऐसा सरमाया है जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। आठवें दशक में ग़जलों और गैर फिल्मी गानों ने भी इस श्रव्य संसार में एक नया आयाम जोड़ा है जो क्रम आज भी चलता चला जाता है। यहां जगजीत सिंह और मन्ना डे के अलावा बेगम अख्तर का नाम उन लोगों की सूची में सबसे ऊपर रखा जाना चाहिए, जिन्होंने समय की धड़कनों से गूंजती शायरी से हमारा परिचय कराया।

एक शो में एक दिन किसी कॉलर को लाइन पर लिया, तो उसने बताया कि उसे ‘जाने वालों ज़रा मुड़ के देखो मुझे, एक इंसान हूं मैं तुम्हारी तरह...’ में आने वाली लाइन ‘फिर रहा हूं भटकता मैं यहां से वहां’ और ‘परेशान हूं मैं तुम्हारी तरह’... ‘तूफान तो आना है, आकर चले जाना है, बादल है ये कुछ पल का, छाकर ढल जाना है... परछाइयां रह जातीं, रह जाती निशानी है... ज़ि‍न्‍दगी और कुछ भी नहीं तेरी मेरी कहानी है’... ‘हो गयी है किसी से जो अनबन, थाम ले दूसरा कोई दामन, ज़ि‍न्‍दगानी की राहें अजब हैं हो अकेला तो लाखों हैं दुश्मन’... ‘इतनी सी बात ना समझा ज़माना, आदमी जो चलता रहे तो मिल जाए हर खज़ाना’... ‘कभी मैं न सोया, कहीं मुझसे खोया, हुआ सुख मेरा ऐसे, पता नाम लिखकर कहीं यूं ही रखकर भूले कोई कैसे, अजब दुख भरी है ये बेबसी बेबसी’... ‘जाकर कहीं खो जाऊं मैं, नींद आये और सो जाऊं मैं, दुनिया मुझे ढूंढे मगर मेरा निशां कोई न हो’... ‘मिलकर रोएं फरियाद करें उन बीते दिनों की याद करें, ऐ काश कहीं मिल जाए कोई वो मीत पुराना बचपन का’... ये वो लाइनें हैं जो उसे अक्सर याद आती हैं और बेचैन कर जाती हैं।
जिस कॉलर ने इन सबकी फरमाइश की थी, वो एक कॉल सेंटर में सीईओ था और कोई तीन लाख रुपये प्रति माह उसकी सैलरी थी। बातचीत के दौरान वह सहज रूप से किसी फिल्मी गाने की लाइन का सहारा लेकर अपनी बात कहता। इस बार अपने बचपन और बीते दिनों की यादों की अक्कासी में उसने जो लाइनें कहीं वो शैलेंन्द्र की थीं- ‘मैं अकेला तो न था, थे मेरे साथी कई, एक आंधी सी उठी, जो भी था ले के गई, आज मैं ढूंढू कहां खो गए जाने किधर, बीते हुए दिन वो हाए प्यारे पल छिन।‘

मैं हैरान हूं और सोचने को मजबूर कि फिल्मी गानों को महज़ मनोरंजन का सामान समझा जाए या उन्हें रोशनी का एक ज़रिया भी, जो करोड़ों अनाम लोगों को हर पल सहारा देते हैं, उनकी आवाज़ बनते हैं। क्या इन्हें गंभीर विमर्श और विचार योग्य विषय नहीं बनाया जाना चाहिए?

Saturday, March 6, 2010

चंदू की नानी

ये मेरे बेटे अबान (साढ़े चार साल) ने पिछले महीने प्रमोद को सुनाई। आप भी सुनिए।


Saturday, February 27, 2010

दाग़-ए-दिल-हमको याद आने लगे...

इक़बाल बानो की आवाज़ और अंदाज़




Friday, February 19, 2010

सईद अख्तर मिर्ज़ा से एक मुलाक़ात


भाई भूपेन का फोटो मेरा ट्रीट किया हुआ है !

भूपेन ने गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल के दौरान सईद अख्तर मिर्ज़ा से क्या बात की,आइये सुनते हैं .








Duration: 40 min Approx Recorded on 10th Feb 2010

कुंदन शाह से एक मुलाक़ात


गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल में इस बार कुंदन शाह और सईद अख्तर मिर्ज़ा भी आये थे। भाई भूपेन वहां थे और उन्होंने दोनों से बातचीत की।


Friday, February 12, 2010

आरज़ू लखनवी को क्यूँ भूलें ?


सहगल साहब को सलाम और आरज़ू लखनवी को भी। नौशाद साहब जिन आरज़ू को अल्लामा आरज़ू कहकर कान पकड़ते थे , उनके लिखे को न्यू थियेटर के बी एन सरकार पत्थर की लकीर समझते थे ।
सुनिए ये ग़ज़ल -

Thursday, February 11, 2010

पांच किताबें: जिन्हें पढ़ने के बाद आप वो नहीं रहे, जो आप थे !




किताबों से हमारा ऐसा रिश्ता है जिसकी मिसाल ढूंढें नहीं मिलती। हर इंसान, जों अक्षर बांच लेता है, उसकी दुनिया में किताबों का एक या दूसरी तरह का स्थान है। ये सवाल जब हमने राम पदारथ से पूछा तो उन्होंने जों सूची बनाई उसे यहाँ हूबहू पेश करता हूँ।

१ - अपनी खबर : पाण्डेय बेचन शर्मा "उग्र "
२ - कसप : मनोहर श्याम जोशी
३ - सत्य के प्रयोग : महात्मा गांधी
४ - प्रतिनिधि कवितायेँ : मुक्तिबोध
५ - युवा कविके नाम रिल्के के पत्र
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आप की सूची में ऐसी कौन सी किताबें हैं जिन्हें आप इस तरह का सवाल पूछे जाने पर शामिल करेंगे नीचे टिप्पणी में "लिखिए "। चाहें तो मुझे सीधे ईमेल कर सकते हैं- ramrotiaaloo@gmail.com पर।

Friday, February 5, 2010

गुरमा: कुछ तस्वीरें -२

एक अवसाद भरी यात्रा की कुछ तस्वीरें आप पहले देख चुके हैं. अब देखिये दूसरा हिस्सा।
सभी को डबल क्लिक कर के बढाया जा सकता है।


पहलवान नाऊ का लड़का सबसे बाएँ


अस्पताल


गुरमा क्लब का रुपहला पर्दा यहीं टंगा करता था


अब कैंटीन बन गया है क्लब


फैक्ट्री
































बिजली विभाग


....क्या इसी घर में रहते थे जेपी गौड़ ?...यानी जेपी सीमेंट के मालिक ?

Wednesday, February 3, 2010

मैं जसदेव सिंह बोल रहा हूँ


पिछले साल मशहूर कमेंट्रेटर जसदेव सिंह से मैंने एक बातचीत की थी. आप भी सुनिए।



जसदेव सिंह से इरफान की बातचीत
जुलाई 2009, नई दिल्ली : अवधि लगभग आधा घंटा

Tuesday, February 2, 2010

भाई प्रणय कृष्ण को सादर

गोरखपुर में परसों से फिल्म फेस्टिवल (www.gorakhpurfilmfestival.blogspot.com) शुरू हो रहा है. मैं इसकी सफलता की कामना करता हूँ ।
यहाँ मैं एक गाना प्रणय जी को dedicate करना चाह रहा हूँ. तलत साहब का गाया ये गाना प्रणय जी से मैंने एक पिछले गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल में सुना था. नीचे फोटो में बाएं वाले प्रणय भाई हैं, काली जैकेट में .


Monday, January 11, 2010

गुरमा: कुछ तस्वीरें

अब आइये देखते हैं, गुरमा को तस्वीरों के आईने में । सभी को डबल क्लिक कर के बढाया जा सकता है।

हमारा पोस्ट ऑफिस












नया बना ईको पॉइंट








ये हमारा क्वार्टर था
















हमारा प्रायमरी स्कूल


यहाँ स्कूल की घंटी लटकती थी























बाकी तस्वीरें अगली पोस्ट में ....